Kumbh Mela

Kumbh Mela India

Kumbh Mela

 

कुंभ मेला भारत का एक प्रमुख धार्मिक और सांस्कृतिक मेला है, जिसे विश्व का सबसे बड़ा आध्यात्मिक समागम भी माना जाता है। यह मेला चार स्थानों पर हर 12 वर्षों के अंतराल पर आयोजित होता है:

 

प्रयागराज (उत्तर प्रदेश) – गंगा, यमुना और सरस्वती नदियों का संगम

हरिद्वार (उत्तराखंड) – गंगा नदी के तट पर

उज्जैन (मध्य प्रदेश) – क्षिप्रा नदी के किनारे

नासिक (महाराष्ट्र) – गोदावरी नदी के किनारे

 

कुंभ मेले का धार्मिक महत्व

हिंदू धर्म में यह मान्यता है कि समुद्र मंथन के समय देवताओं और असुरों के बीच अमृत कलश (कुंभ) के लिए संघर्ष हुआ था। उस कलश से अमृत की कुछ बूंदें उपरोक्त चार स्थानों पर गिरीं। जिसके कारण इन स्थानों पर कुंभ मेला आयोजित होता है और ऐसा माना जाता है कि इस मेले के दौरान इन पवित्र नदियों में स्नान करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है।

 

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कुंभ मेले के प्रकार

पूर्ण कुंभ मेला – हर 12 साल में एक बार होता है

अर्ध कुंभ मेला – हर 6 साल में प्रयागराज और हरिद्वार में

महाकुंभ मेला – हर 144 वर्षों में सिर्फ प्रयागराज में

मिनी कुंभ / सिंहस्थ – उज्जैन और नासिक में विशेष ज्योतिषीय संयोगों पर

 

लाखों श्रद्धालु और साधु-संत शामिल होते हैं

अखाड़ों की शाही सवारी और शाही स्नान बहुत प्रसिद्ध हैं

सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और धार्मिक आयोजनों का केंद्र

2017 में यूनेस्को ने कुंभ मेले को “Intangible Cultural Heritage” घोषित किया

 

कुम्भ मेला – कुम्भ मेला हिंदू धर्म का एक महत्वपूर्ण त्योहार है ये एक ऐसा त्योहार जो एक ही जगह पर एक साथ हजारों लोग मनाते है, कुम्भ मेला भारत में लगने वाला सबसे बड़ा मेला है यह मेला भारत के चार मुख्य जगहों पर लगाया जाता है और यह मेला ३ साल में एक बार लगाया जाता है प्राचीन कथाओ के अनुसार भारत की जिन ४ जगहों पर यह कुम्भ मेला लगाया जाता है वहाँ पर अमृत की कुछ बुँदे स्वर्ग से गिरी थी और ये जगह है, हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक

 

खगोल गणनाओं के अनुसार यह मेला मकर संक्रांति के दिन प्रारम्भ होता है, जब सूर्य और चन्द्रमा, वृश्चिक राशि में और वृहस्पति, मेष राशि में प्रवेश करते हैं। मकर संक्रांति के होने वाले इस योग को कुम्भ स्नान-योग कहते हैं और इस दिन को विशेष मंगलकारी माना जाता है,

 

क्योंकि ऐसा माना जाता है कि इस दिन पृथ्वी से उच्च लोकों के द्वार इस दिन खुलते हैं और इस प्रकार इस दिन स्नान करने से आत्मा को उच्च लोकों की प्राप्ति सहजता से हो जाती है। यहाँ स्नान करना साक्षात् स्वर्ग दर्शन माना जाता है।

 

पौराणिक विश्वास जो कुछ भी हो ज्योतिषियों के अनुसार कुंभ का असाधारण महत्व बृहस्पति के कुंभ राशि में प्रवेश तथा सूर्य के मेष राशि में प्रवेश के साथ जुड़ा है। ग्रहों की स्थिति हरिद्वार से बहती गंगा के किनारे पर स्थित हर की पौड़ी(हरिद्वार) स्थान पर गंगा जल को औषधिकृत करती है तथा उन दिनों यह अमृतमय हो जाती है।

 

यही कारण है कि अपनीअंतरात्मा की शुद्धि हेतु पवित्र स्नान करने लाखों श्रद्धालु यहाँ आते हैं। आध्यात्मिक दृष्टि से अर्ध कुंभ के काल में ग्रहों की स्थिति एकाग्रता तथा ध्यान साधना के लिए उत्कृष्ट होती है। हालाँकि सभी हिंदू त्योहार समान श्रद्धा और भक्ति के साथ मनाए जाते है, पर यहाँ अर्ध कुंभ तथा कुंभ मेले के लिए आने वाले पर्यटकों की संख्या सबसे अधिक होती है।

 

कुंभ मेला के आयोजन को लेकर दो-तीन पौराणिक कथाएँ प्रचलित हैं जिनमें से सर्वाधिक मान्य कथा देव-दानवों द्वारा समुद्र मंथन से प्राप्त अमृत कुंभ से अमृत बूँदें गिरने को लेकर है।

 

इस कथा के अनुसार महर्षि दुर्वासा के शाप के कारण जब इंद्र और अन्य देवता कमजोर हो गए तो दैत्यों ने देवताओं पर आक्रमण कर उन्हें परास्त कर दिया। तब सब देवता मिलकर भगवान विष्णु के पास गए और उन्हे सारा वृतान्त सुनाया। तब भगवान विष्णु ने उन्हे दैत्यों के साथ मिलकर क्षीरसागर का मंथन करके अमृत निकालने की सलाह दी।

 

भगवान विष्णु के ऐसा कहने पर संपूर्ण देवता दैत्यों के साथ संधि करके अमृत निकालने के यत्न में लग गए। अमृत कुंभ के निकलते ही देवताओं के इशारे से इंद्रपुत्र जयंत अमृत-कलश को लेकर आकाश में उड़ गया। उसके बाद दैत्यगुरु शुक्राचार्य के आदेशानुसार दैत्यों ने अमृत को वापस लेने के लिए जयंत का पीछा किया और घोर परिश्रम के बाद उन्होंने बीच रास्ते में ही जयंत को पकड़ा।

 

तत्पश्चात अमृत कलश पर अधिकार जमाने के लिए देव-दानवों में बारह दिन तक अविराम युद्ध होता रहा। इस परस्पर मारकाट के दौरान पृथ्वी के चार स्थानों (प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन, नासिक) पर कलश से अमृत बूँदें गिरी थीं।

 

उस समय चंद्रमा ने घट से प्रस्रवण होने से, सूर्य ने घट फूटने से, गुरु ने दैत्यों के अपहरण से एवं शनि ने देवेन्द्र के भय से घट की रक्षा की। कलह शांत करने के लिए भगवान ने मोहिनी रूप धारण कर यथाधिकार सबको अमृत बाँटकर पिला दिया। इस प्रकार देव-दानव युद्ध का अंत किया गया।अमृत प्राप्ति के लिए देव-दानवों में परस्पर बारह दिन तक निरंतर युद्ध हुआ था। देवताओं के बारह दिन मनुष्यों के बारह वर्ष के तुल्य होते हैं।अतएव कुंभ भी बारह होते हैं।

 

उनमें से चार कुंभ पृथ्वी पर होते हैं और शेष आठ कुंभ देवलोक में होते हैं, जिन्हें देवगण ही प्राप्त कर सकते हैं, मनुष्यों की वहाँ पहुँच नहीं है। जिस समय में चंद्रादिकों ने कलश की रक्षा की थी, उस समय की वर्तमान राशियों पर रक्षा करने वाले चंद्र-सूर्यादिक ग्रह जब आते हैं, उस समय कुंभ का योग होता है अर्थात जिस वर्ष, जिस राशि पर सूर्य, चंद्रमा और बृहस्पति का संयोग होता है,उसी वर्ष, उसी राशि के योग में, जहाँ-जहाँ अमृत बूँद गिरी थी, वहाँ-वहाँ कुंभ मेला होता है।

 

कुम्भ मेले में पुरे भारत से और देश विदेश से बहुत से लोग अपने परिवारों के साथ यहाँ आते है कुम्भ के इस मेले में पुरे भारत बहुत से बहुत से साधू भी इस मेले में आते है

 

कुम्भ मेला और साधु – वेदों और पुराणों के अनुसार हिंदू धर्म में कई प्रकार के साधु होते हैं नागा साधु और अघोरी बाबा। देखने में इनकी वेशभूषा एक जैसी लगती है। मगर इनके साधु बनने की प्रक्रिया और रहन-सहन और तप-साधना में काफी अंतर होता है। नागा साधु कुंभ में बढ़-चढ़कर हिस्‍सा लेते हैं, लेकिन अघोरी बाबा कुंभ में नहीं जाते।

 

श्‍मशान में बनते हैं अघोरी – नागा और अघोरी साधु बनने के लिए काफी कठिन परीक्षा से गुजरना पड़ता है। दोनों ही प्रकार के साधु बनने की प्रक्रिय में करीब 12 वर्ष का समय लगता है। मगर इनकी प्रक्रिया काफी अलग होती है। नागा-साधु बनने के लिए अखाड़ों में दीक्षा लेनी पड़ती है, जबकि अघोरी बनने के लिए श्‍मशान में जिंदगी के कई साल काफी कठिनता के साथ श्‍मशान में गुजारने पड़ते हैं।

 

नागा साधु के होते हैं गुरु – नागा साधु बनने की प्रक्रिया में अखाडे़ के प्रमुख को अपना गुरु मानना पड़ता है और फिर उसकी शिक्षा-दीक्षा में नागा साधु बनने की प्रक्रिया सम्पन्न होती है। वहीं अघोरियों के गुरु स्वयं भगवान शिव होते हैं। अघोरियों को भगवान शिव का ही पांचवां अवतार माना जाता है। अघोरी श्मशान में मुर्दे के पास बैठकर अपनी तपस्या करते हैं। मान्यता है कि ऐसा करने से उन्हें दैवीय शक्तियों की प्राप्ति होती है।

 

नागा और अघोरी करते हैं ऐसा भोजन – नागा और अघोरी दोनों ही मांसाहारी होते हैं। हालांकि नागाओं में कुछ शाकाहार भी करते हैं। किंतु अघोरी शाकाहारी नहीं होते, माना जाता है कि ये न केवल जानवरों का मांस खाते हैं, बल्कि ये इंसानों के मांस का भी भक्षण करते हैं। ये श्मशान में मुर्दों के मांस का भक्षण करते हैं।

 

नागा और अघोरी बाबा के पहनावे – नागा और अघोरी बाबा के पहनावे-ओढ़ावे में भी काफी अंतर होता है नागा साधु बिना कपड़ों के रहते हैं। जबकि अघोरी ऐसे नहीं रहते। भगवान शिव के ये सच्चे भक्त उन्हीं की तरह ही जानवरों की से अपने तन का निचला हिस्सा ढकते हैं।

 

जीवित रहते हुए भी कर देते हैं, अपना अंतिम संस्कार। नागा और अघोरी दोनों ही पूरे तरीके से परिवार से दूर रहकर पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं। नागा और अघोरी। इन दोनों को ही साधु बनने की प्रक्रिया में सबसे पहले अपना अंतिम संस्कार करना होता है। और इस वक्त ये अपने परिवार को भी त्याग देने का प्रण लेते हैं। परिजनों और बाकी दुनिया के लिए भी ये मृत हो जाते हैं।और अपनी तपस्या को पूरा करने के लिए। वह फिर कभी भी अपने परिवार वालों से नहीं मिलते।

 

अघोरी सदैव श्मशान में ही बिताते हैं वक्त – नागा साधुओं के दर्शन अक्सर हो जाया करते हैं, मगर अघोरी कहीं भी नजर नहीं आते। ये केवन श्मशान में ही वास करते हैं। जबकि नागा साधु कुंभ जैसे धार्मिक समारोह में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं और उसके बाद यह वापस हिमालय की ओर चले जाते हैं। मान्यता है कि नागा साधु के दर्शन करने के बाद अघोरी के दर्शन करना भगवान शिव के दर्शन करने के बराबर होता है।

 

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